तस्वीर
मैं समंदर के किनारे बैठ कर इस रेत पे,
न जाने कितने ही घरौंदे गिराता- बनाता जा रहा।
उंगलियों से-बीच में,
इस मख़मली सी रेत पे,
इक अजनबी तस्वीर का ख़ाका बनता जा रहा।
सामने बैठा समंदर बढ़ रहा मेरी तरफ,
साथ में लहरों की गर्जन वो है लाता जा रहा।
पर पास आ देखता है जब मेरी तस्वीर को,
तब दे बधाई ,मुस्कुरा के, मौन लौटा जा रहा।
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