मंगलवार, 28 सितंबर 2010

पूर्वज


अब .... पूर्वज क्यों नहीं याद आते,
क्योंकि वह सोच में ही नहीं समा पाते।
सोच -
जो सीमित हो चुकी है,
संकुचित हो चुकी है,
सिकुड़ सी रही है।
हर कोई आत्मकेंद्रित हो
विराट सा महसूस कर रहा है।
दूजों को छलने का,
आगे चलने का प्रयत्न कर रहा है ।
पर शायद वो नहीं जानता
कि सिर्फ़ ..वो ख़ुद को छल रहा है।
.... अब ऐसे मस्तिष्क में,
जहाँ जीवित का ही स्थान न हो,
पुरखे कैसे समा पाएगें,
अपना स्थान कहाँ बना पाएगें।
मित्र
वे कुछ नहीं चाहते ,श्रद्धा के एक पुष्प के सिवा।
पुष्प भी न सही ,क्षण भर द्रष्टिपात ही पर्याप्त है।
क्योंकि सत्य ये है
वे वर्तमान और भविष्य के कण -कण में व्याप्त हैं ।