रविवार, 4 जुलाई 2010

माँ


निःस्वार्थ अविरल कर्म में लग जाती है माता,
जीवन का दुरूह कर्म भी है उसको भाता ,
ख़ुद को पीड़ित कर के भी वो सब को सुख पहुंचाती,
इस सब पर भी औरों को वो अभिमान दिखाती

1 टिप्पणी:

  1. क्या बात है शरद जी! मुझे भी कुछ याद आ गया
    "धूप है तेज़ बहुत मुझको बचाए रखना,
    ए मेरी माँ की दुआओं यूं ही साए रखना."
    ... मां को नमन...

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