१- महफ़िल सजी हुई है,इक क़सर रही,
आप आ गए जो,शमा बिख़र गई।
२- सुन धड़कनों की धक-धक,ये कह रही हैं क्या,
आज मिलने को कोई,हमसे आ रहा।
क्षितिज पे पहुँचने की चाह कैसी, हम भी तो किसी के क्षितिज पर हैं, चलो क्षितिज से ही शुरुआत की जाए.
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
रविवार, 19 दिसंबर 2010
१-२-३
१- ग़र्म हैं हर तरफ चर्चाऍ हमारी ,
हम कुछ नहीं कहते,फिर भी वो बहुत है।
२- हर लम्हा ख़ुशगवार है, तेरी क़ायनात का,
दुःख दे रहे हैं जो,तेरी क़ायनात नहीं।
३- ताज पहने हैं हम,फ़कीरी से ऐ ख़ुदा,
ग़र फ़कीरी नहीं,बेताज हो गए।
हम कुछ नहीं कहते,फिर भी वो बहुत है।
२- हर लम्हा ख़ुशगवार है, तेरी क़ायनात का,
दुःख दे रहे हैं जो,तेरी क़ायनात नहीं।
३- ताज पहने हैं हम,फ़कीरी से ऐ ख़ुदा,
ग़र फ़कीरी नहीं,बेताज हो गए।
बुधवार, 3 नवंबर 2010
रविवार, 31 अक्टूबर 2010
वसुधैव कुटुम्बकम
एकाकी-एकाकी करके दुनियाँ कितनी अलग हुई,
अनजानी गुस्ताख़ी करके वो क्यों इतनी बिलग हुई।
...दुनियाँ खंडित महाद्वीप में,
महाद्वीप फिर देशों में,
देश बट गए राज्य-राज्य में,
राज्य बिखर गए शहरों में,
शहरों में फिर हुए मोहल्ले,
वो भी बट गए घर-घर में,
...फिर भी चैन न आया जब तो,
घर-घर बट गए खट-पट में।
...परिवार बट गए,
बच्चे बट गए,
और बट गयीं निष्ठांऐं ,
कारण केवल एक यही था,
वो थी -निज प्रतिष्ठाऍ।
.....अहम्,वहम का कारण है,करता वो निस्तारण है।
जब तक न बाँटो-तुम दुःख-सुख,
नहीं निकलता कोई हल;
छोटा-छोटा,हो-हो कर,रहा हर कोई ख़ुद को छल।
दर्द बढ़ रहा दुनियाँ में,
दवा नहीं अब मिलती है,
बहुत सरल इलाज है इसका ,जिससे दुनियाँ चलती है।
इस पीड़ा को मिल कर सब कर सकते हैं कम,
जब सूत्र लगायेंगे-वसुधैव कुटुम्बकम।
अनजानी गुस्ताख़ी करके वो क्यों इतनी बिलग हुई।
...दुनियाँ खंडित महाद्वीप में,
महाद्वीप फिर देशों में,
देश बट गए राज्य-राज्य में,
राज्य बिखर गए शहरों में,
शहरों में फिर हुए मोहल्ले,
वो भी बट गए घर-घर में,
...फिर भी चैन न आया जब तो,
घर-घर बट गए खट-पट में।
...परिवार बट गए,
बच्चे बट गए,
और बट गयीं निष्ठांऐं ,
कारण केवल एक यही था,
वो थी -निज प्रतिष्ठाऍ।
.....अहम्,वहम का कारण है,करता वो निस्तारण है।
जब तक न बाँटो-तुम दुःख-सुख,
नहीं निकलता कोई हल;
छोटा-छोटा,हो-हो कर,रहा हर कोई ख़ुद को छल।
दर्द बढ़ रहा दुनियाँ में,
दवा नहीं अब मिलती है,
बहुत सरल इलाज है इसका ,जिससे दुनियाँ चलती है।
इस पीड़ा को मिल कर सब कर सकते हैं कम,
जब सूत्र लगायेंगे-वसुधैव कुटुम्बकम।
मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
आस
शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
पूर्वज
अब .... पूर्वज क्यों नहीं याद आते,
क्योंकि वह सोच में ही नहीं समा पाते।
सोच -
जो सीमित हो चुकी है,
संकुचित हो चुकी है,
सिकुड़ सी रही है।
हर कोई आत्मकेंद्रित हो
विराट सा महसूस कर रहा है।
दूजों को छलने का,
आगे चलने का प्रयत्न कर रहा है ।
पर शायद वो नहीं जानता
कि सिर्फ़ ..वो ख़ुद को छल रहा है।
.... अब ऐसे मस्तिष्क में,
जहाँ जीवित का ही स्थान न हो,
पुरखे कैसे समा पाएगें,
अपना स्थान कहाँ बना पाएगें।
मित्र
वे कुछ नहीं चाहते ,श्रद्धा के एक पुष्प के सिवा।
पुष्प भी न सही ,क्षण भर द्रष्टिपात ही पर्याप्त है।
क्योंकि सत्य ये है
वे वर्तमान और भविष्य के कण -कण में व्याप्त हैं ।
क्योंकि वह सोच में ही नहीं समा पाते।
सोच -
जो सीमित हो चुकी है,
संकुचित हो चुकी है,
सिकुड़ सी रही है।
हर कोई आत्मकेंद्रित हो
विराट सा महसूस कर रहा है।
दूजों को छलने का,
आगे चलने का प्रयत्न कर रहा है ।
पर शायद वो नहीं जानता
कि सिर्फ़ ..वो ख़ुद को छल रहा है।
.... अब ऐसे मस्तिष्क में,
जहाँ जीवित का ही स्थान न हो,
पुरखे कैसे समा पाएगें,
अपना स्थान कहाँ बना पाएगें।
मित्र
वे कुछ नहीं चाहते ,श्रद्धा के एक पुष्प के सिवा।
पुष्प भी न सही ,क्षण भर द्रष्टिपात ही पर्याप्त है।
क्योंकि सत्य ये है
वे वर्तमान और भविष्य के कण -कण में व्याप्त हैं ।
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
टूटते तारे
वे जो टूटते तारे गिरते हैं ज़मीन पर,
ख़ुद टूट कर भी कितनों कि आस जोड़ जाते हैं।
जब टिमटिमाते थे,
आहलादित करते थे मन को।
...वो हल्का-हल्का सा झिलमिलाना,
कितनों के बीच भी अपना काम करते जाना।
ये भी न पता उनको
कोई देखता होगा,
बस ....ख़ुद उल्लास में इस विश्वास में
जीते हैं जीवन को अपना सुन्दर,
क्योकि जानते हैं
जीने कि कला है उनके अन्दर।
.....नहीं ज़रूरत कभी किसी को खुश करने की,
यदि ख़ुशी से महकें ख़ुद तो
ख़ुशबू हर लेती पीड़ा हर जन की ।
ख़ुद टूट कर भी कितनों कि आस जोड़ जाते हैं।
जब टिमटिमाते थे,
आहलादित करते थे मन को।
...वो हल्का-हल्का सा झिलमिलाना,
कितनों के बीच भी अपना काम करते जाना।
ये भी न पता उनको
कोई देखता होगा,
बस ....ख़ुद उल्लास में इस विश्वास में
जीते हैं जीवन को अपना सुन्दर,
क्योकि जानते हैं
जीने कि कला है उनके अन्दर।
.....नहीं ज़रूरत कभी किसी को खुश करने की,
यदि ख़ुशी से महकें ख़ुद तो
ख़ुशबू हर लेती पीड़ा हर जन की ।
बुधवार, 25 अगस्त 2010
इज़हार
जज़्बा-ऐ-मोहब्बत का इज़हार करना सीखिए,
दे दिया जो दिल तो इक़रार करना सीखिए।
सीखिए मोहब्बत में हद से गुज़र जाना,
मुश्किलें हों कितनी भी पार करते जाना।
तोड़िए पैमाने प्यार मोहब्बत के,
लिख दीजिये फल्सफे ज़िन्दगी कि हद के।
न कोई तोड़ पायेगा,न कोई जोड़ पायेगा,
ज़िन्दगी कि राहें न कोई मोड़ पायेगा।
दिखा दो सभी को,जता दो सभी को ,
ये जज़्बात दिल का बता दो सभी को ,
कि ख़ाब को हकीकत बना सकते हैं हम,
जन्नत को धरती पे ला सकते हैं हम।
खुशिओं का सैलाब आयेगा दुनियाँ में,
सुन्दर सा इक ख़ाब आयेगा दुनियां मैं ।
किसी पे न होगा किसी और का बस ,
हम होंगे,तुम होगे,इश्क होगा और बस ।
दे दिया जो दिल तो इक़रार करना सीखिए।
सीखिए मोहब्बत में हद से गुज़र जाना,
मुश्किलें हों कितनी भी पार करते जाना।
तोड़िए पैमाने प्यार मोहब्बत के,
लिख दीजिये फल्सफे ज़िन्दगी कि हद के।
न कोई तोड़ पायेगा,न कोई जोड़ पायेगा,
ज़िन्दगी कि राहें न कोई मोड़ पायेगा।
दिखा दो सभी को,जता दो सभी को ,
ये जज़्बात दिल का बता दो सभी को ,
कि ख़ाब को हकीकत बना सकते हैं हम,
जन्नत को धरती पे ला सकते हैं हम।
खुशिओं का सैलाब आयेगा दुनियाँ में,
सुन्दर सा इक ख़ाब आयेगा दुनियां मैं ।
किसी पे न होगा किसी और का बस ,
हम होंगे,तुम होगे,इश्क होगा और बस ।
रविवार, 18 जुलाई 2010
प्रार्थना
हे आराध्य साध्य करना तुम हमारे लक्ष्य को।
लक्ष्य जन हित में हो,ज्ञान सागर प्रस्फुटित हो।
है ऐसी कामना, है ऐसी प्रार्थना।
चल पड़े हम लक्ष्य ले कर, अंत नहीं जानते।
है भरोसा हमको तुझ पे, ऐसा सब है मानते।
कीर्ति फैले हमारी, उद्देश्य की पूर्ति हो।
देना हमको ऐसी शक्ति, कि कार्य निर्विघ्न हो।
है ऐसी कामना ,है ऐसी प्रार्थना ।।
लक्ष्य जन हित में हो,ज्ञान सागर प्रस्फुटित हो।
है ऐसी कामना, है ऐसी प्रार्थना।
चल पड़े हम लक्ष्य ले कर, अंत नहीं जानते।
है भरोसा हमको तुझ पे, ऐसा सब है मानते।
कीर्ति फैले हमारी, उद्देश्य की पूर्ति हो।
देना हमको ऐसी शक्ति, कि कार्य निर्विघ्न हो।
है ऐसी कामना ,है ऐसी प्रार्थना ।।
प्यारी दुनियाँ
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
आने वाला कल
मैं नहीं जानता क्या होगा,
पर जो होगा अच्छा होगा,
आने वाला कल सबका,
बेहतर से बेहतर होगा ।
नई आस -विश्वास लिए,
नव स्वप्नों की स्वांस लिए,
मन में नव उल्लास लिए,
जो होगा बेहतर होगा । मैं नहीं .....
छिपे हुए परिणामों में,
अप्रत्याशित कामो में,
जीवन के पैगामों में,
जो भी होगा बेहतर होगा । मैं नहीं .....
कलम चल चुकी है उसकी,
हमें देख रही नज़र जिसकी,
उसको है खबर सबकी,
सभी काम उत्तम होगा । मैं नहीं ......
पर जो होगा अच्छा होगा,
आने वाला कल सबका,
बेहतर से बेहतर होगा ।
नई आस -विश्वास लिए,
नव स्वप्नों की स्वांस लिए,
मन में नव उल्लास लिए,
जो होगा बेहतर होगा । मैं नहीं .....
छिपे हुए परिणामों में,
अप्रत्याशित कामो में,
जीवन के पैगामों में,
जो भी होगा बेहतर होगा । मैं नहीं .....
कलम चल चुकी है उसकी,
हमें देख रही नज़र जिसकी,
उसको है खबर सबकी,
सभी काम उत्तम होगा । मैं नहीं ......
मिलन
रवि(सूर्य) की आस लगाऐ वसुधा(पृथ्वी),
बैठी आँख बिछाऐ वसुधा।
कहती-
नित जब तुम करते स्पर्श हमारा,
सृजित होऐ तब जीवन धारा।
जब न दूत(सूर्य कि किरण) भी आता तेरा ,
कोई संदेश न लाता तेरा,
अंधकार छा जाता मन में,
शिशिर लिपट है जाता तन में,
साँसें धीमी पड़ जाती है,
पलकें झुक-झुक सी जाती हैं ।
तुझको भी दुःख होता है
जब तेरा वैभव सोता है।
पीड़ा समझूँ तेरी सारी,
कि तेरी है कुछ लाचारी।
इस धूल भरी आंधी(घना कोहरा) में तेरी राह भटक सी जाती है,
तू करता है कोशिश फिर भी, पर बात नहीं बन पाती है।
मैं जानू-
तू लगा सतत मुझको पाने को,
जीवन में मेरे आने को,
डिगा न सकता कोई तुझको,
अलग नहीं कर सकता मुझको,
मिलन हमारा सतत रहेगा,
जब तक जीवन सृजित रहेगा।
मिटा सके संयोग हमारा ऐसी आंधी कब तक आएगी,
बाधाऐ चाहें जितनी हों सब की सब मिटती जाएगीं।
बैठी आँख बिछाऐ वसुधा।
कहती-
नित जब तुम करते स्पर्श हमारा,
सृजित होऐ तब जीवन धारा।
जब न दूत(सूर्य कि किरण) भी आता तेरा ,
कोई संदेश न लाता तेरा,
अंधकार छा जाता मन में,
शिशिर लिपट है जाता तन में,
साँसें धीमी पड़ जाती है,
पलकें झुक-झुक सी जाती हैं ।
तुझको भी दुःख होता है
जब तेरा वैभव सोता है।
पीड़ा समझूँ तेरी सारी,
कि तेरी है कुछ लाचारी।
इस धूल भरी आंधी(घना कोहरा) में तेरी राह भटक सी जाती है,
तू करता है कोशिश फिर भी, पर बात नहीं बन पाती है।
मैं जानू-
तू लगा सतत मुझको पाने को,
जीवन में मेरे आने को,
डिगा न सकता कोई तुझको,
अलग नहीं कर सकता मुझको,
मिलन हमारा सतत रहेगा,
जब तक जीवन सृजित रहेगा।
मिटा सके संयोग हमारा ऐसी आंधी कब तक आएगी,
बाधाऐ चाहें जितनी हों सब की सब मिटती जाएगीं।
बुधवार, 7 जुलाई 2010
अद्भुत संरचना
कुहासे में निकली धूप
जब सुबह खेत में आती है,
तब देख प्रकृति का रूप
ये धरती इठलाती है।
पेड़ों की पत्ती पर
ओस की बूंदों से
जब सूरज मिलने आऐ....
तब नन्ही सी उन बूंदों की
अनुपम आभा बढ़ सी जाऐ।
वे स्वर्ण मई नन्ही बूंदें
धरती का श्रंगार करें,
तब इस धरती पर मनुज रूप में
ईश्वर भी अवतार धरे।
इस अपनी अद्भुत संरचना पे
वो मुदित हुए न रह पाए,
और लोक-लोक में जा-जा के
इसकी वे गाथा गाऐ।
जब सुबह खेत में आती है,
तब देख प्रकृति का रूप
ये धरती इठलाती है।
पेड़ों की पत्ती पर
ओस की बूंदों से
जब सूरज मिलने आऐ....
तब नन्ही सी उन बूंदों की
अनुपम आभा बढ़ सी जाऐ।
वे स्वर्ण मई नन्ही बूंदें
धरती का श्रंगार करें,
तब इस धरती पर मनुज रूप में
ईश्वर भी अवतार धरे।
इस अपनी अद्भुत संरचना पे
वो मुदित हुए न रह पाए,
और लोक-लोक में जा-जा के
इसकी वे गाथा गाऐ।
नाराज़ी के राज़
नाराज़ी के राज़ भी हमको ख़ूब सुहाने लगते हैं ,
जब रूठ गया होता है कोई लोग मनाने लगते हैं ।
जब रूठ गया होता है कोई लोग मनाने लगते हैं ।
सोने की चिड़िया
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
तस्वीर
मैं समंदर के किनारे बैठ कर इस रेत पे,
न जाने कितने ही घरौंदे गिराता- बनाता जा रहा।
उंगलियों से-बीच में,
इस मख़मली सी रेत पे,
इक अजनबी तस्वीर का ख़ाका बनता जा रहा।
सामने बैठा समंदर बढ़ रहा मेरी तरफ,
साथ में लहरों की गर्जन वो है लाता जा रहा।
पर पास आ देखता है जब मेरी तस्वीर को,
तब दे बधाई ,मुस्कुरा के, मौन लौटा जा रहा।
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