सार
क्षितिज पे पहुँचने की चाह कैसी, हम भी तो किसी के क्षितिज पर हैं, चलो क्षितिज से ही शुरुआत की जाए.
शुक्रवार, 14 जून 2013
घर से निकले तो आग लग गयी मोहल्ले में,
लौट के देखा तो छज्जे पे वो खड़े थे।
रविवार, 9 जून 2013
आखेट
आखेट के तेरे नयन से बच सके मुमकिन नहीं,
मेंहदी बिन हाथ कोई रच सके मुमकिन नहीं।
मुमकिन नहीं कोई भुला दे रात की वो चांदनी,
मुमकिन नहीं कोई भुला दे ख़ूबसूरत रागनी।
कैसे पपीहा भूल सकता बूंद स्वाति की कभी,
कैसे धरा है भूल सकती प्यार दिनकर का कभी।
बाग़ में खिलती कली को भूल सकता है कोई,
मुस्कुराने की अदा को भूल सकता है कोई ,
...भूलने की बात का जो ज़िक्र होता है कभी,
भूल ही को भूल जाता है ये अदना सा कवि।
शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013
लुत्फ़
मैंने कंकरी उछाल दी प्रेम ताल में,
लहरों की तरंगों का लुत्फ़ लूट रहा हूँ ।
रविवार, 10 फ़रवरी 2013
कम-अक्ल हो तुम ये अच्छा है,
इस दौर में वरना जीते कैसे।
गुरुवार, 31 जनवरी 2013
दूर हो बहुत तुम, कैसे यकीं करें,
निकलें जो तेरे आंसू , मेरी आंख से।
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