मंगलवार, 31 अगस्त 2010

टूटते तारे


वे जो टूटते तारे गिरते हैं ज़मीन पर,
ख़ुद टूट कर भी कितनों कि आस जोड़ जाते हैं।
जब टिमटिमाते थे,
आहलादित करते थे मन को।
...वो हल्का-हल्का सा झिलमिलाना,
कितनों के बीच भी अपना काम करते जाना।
ये भी न पता उनको
कोई देखता होगा,
बस ....ख़ुद उल्लास में इस विश्वास में
जीते हैं जीवन को अपना सुन्दर,
क्योकि जानते हैं
जीने कि कला है उनके अन्दर।
.....नहीं ज़रूरत कभी किसी को खुश करने की,
यदि ख़ुशी से महकें ख़ुद तो
ख़ुशबू हर लेती पीड़ा हर जन की ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया ! लिखते रहिये.शुभकामनाएँ.

    कमेन्ट-बॉक्स से वर्ड-वेरिफिकेशन हटा दें तो सुविधा होगी..

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  2. ....नहीं ज़रूरत कभी किसी को खुश करने की,

    jeene ka yah hunar shaandar hai

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