रविवार, 31 अक्टूबर 2010

वसुधैव कुटुम्बकम


एकाकी-एकाकी करके दुनियाँ कितनी अलग हुई,
अनजानी गुस्ताख़ी करके वो क्यों इतनी बिलग हुई।
...दुनियाँ खंडित महाद्वीप में,
महाद्वीप फिर देशों में,
देश बट गए राज्य-राज्य में,
राज्य बिखर गए शहरों में,
शहरों में फिर हुए मोहल्ले,
वो भी बट गए घर-घर में,
...फिर भी चैन न आया जब तो,
घर-घर बट गए खट-पट में।
...परिवार बट गए,
बच्चे बट गए,
और बट गयीं निष्ठांऐं ,
कारण केवल एक यही था,
वो थी -निज प्रतिष्ठाऍ।
.....अहम्,वहम का कारण है,करता वो निस्तारण है।
जब तक न बाँटो-तुम दुःख-सुख,
नहीं निकलता कोई हल;
छोटा-छोटा,हो-हो कर,रहा हर कोई ख़ुद को छल।
दर्द बढ़ रहा दुनियाँ में,
दवा नहीं अब मिलती है,
बहुत सरल इलाज है इसका ,जिससे दुनियाँ चलती है।
इस पीड़ा को मिल कर सब कर सकते हैं कम,
जब सूत्र लगायेंगे-वसुधैव कुटुम्बकम।

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

आस


अपेक्षांऍ अनंत हैं,
आकांक्षाऍ अनेक हैं।
पूर्ति निश्चित है न जिनकी,
वे.. कामनाऍ अनेक हैं।
आस लगाऐ हैं सभी,
पास इसलिए हैं सभी।
अपेक्षाओं के रथ पर,
जीवन के इस पथ पर,
अकंपित हो कर चल पाऊं,
तो आस मैं पूरी कर पाऊं।

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

हम अक्सर झगड़ते हैं तुझसे,
जानते हो क्यो;
तेरे पास रहने का बहाना ढूंढते हैं।

बादशाह


पसंद तो शामें थीं,
पर शौक़ न थे रातों के।
चुप तो हम रहते थे,
पर बादशाह थे बातों के।